बस्ती में 50 साल की पत्रकारिता पर एक नजर
पिछली पीढ़ी से हमे जो मिला क्या अगली पीढ़ी को दे पायेंगे हम
लिखने पढ़ने वाले पत्रकारों का अकाल, संकट में अगले दशक की पत्रकारिता
ब्रेकिंग न्यूज से खड़ा हो रहा तूफान
त्योहारी वसूलने वाले पत्रकारों की लम्बी फेहरिस्त
अधिकांश संपादक भी नही जानते क्या है आज की खबर
कापी पेस्ट बना मौजूदा पत्रकारिता का हथियार

बस्ती। पत्रकारिता कहने सुनने में जितनी आसान लगती है उतनी है नहीं। बेहद दुरूह कार्य है। हर प्रकार के जोखिम हैं। पत्रकारिता से न कोई लाइफस्टाइल जी सकते, न कोई मिल्कियत खड़ी कर सकते और न आदर्श परिवार ही बना सकते है। हर कदम पर त्याग है, समर्पण है प्रतिबद्धता है और अभाव है। सही मायने में जो पत्रकार हैं उनके पास कुछ नही होता, जो कुछ होता है उसके लिये भी वह बहुत कुछ खो चुका होता है। पत्रकार अच्छा दिखता, अच्छा पहनता है, अच्छा बोलने की कोशिश करता है, अच्छा खाता है और अच्छा आचरण भी करने की कोशिश करता है, इन सबके पीछे सिर्फ एक कारण है वह बुरा इंसान कतई नही बनना चाहता। पत्रकार दूसरों से सवाल करता है, उन पर उंगलियां उठाता है, ऐसे में चाहता है कि उस पर कोई उंगली न उठा पाये।

लेकिन परिस्थितियां बड़ी तेजी से बदली हैं। अब एक आदर्श व्यक्तित्व गढ़ने के लिये इन सब चीजों की जरूरत नही है। इसलिये पत्रकारिता के क्षेत्र में आने वाले बहुत कम लोग हैं जो आदर्शों को अपनाना चाहते हैं। वे रंगमिजाजी हैं, मिल्कियत और लग्जरी लाइफस्टाइल उन्हे आदर्शों का गला घोंटने को विवश करते हैं। वे रागदरबारी भी हो गये हैं। सही गलत में फर्क समझते हैं लेकिन अपने शौक पूरे करने के लिये वे गलत को भी सही ठहराने लगते हैं। गांजा बेंचने वालों का नेटवर्क संचालित करना हो या फिर देह व्यापार ही क्यों न करवाना पड़ा, बस शौक पूरे होने चाहिये। चूंकि पत्रकारों पर आज भी 80 फीसदी लोग भरोसा करते हैं इसलिये उनकी कही गलत बात भी सही लगने लगती है वे बेहद आधुनिक ढंग से आम जनमानस के सामने परोसते हैं। इसी किरदार को नया नाम मिला है गोदी मीडिया।
पत्रकारों के लिये यह नया नाम गाली से कम नही है लेकिन यह भी पसंद है बस लक्ष्य पूरे होने चाहिये। ऐसा भी नही कि मौजूदा सरकारों, सरकारी मशीनरी, जांच एजेंसियों के वे आगे भी हिमायती बने रहेंगे। देश की सत्ता बदली तो वे सबसे पहले बदलेंगे और फिर जाकर गोद में बैठ जायेंगे। मसलन वे हमेशा सत्ता के साथ रहेंगे। जो गोद में बैठ गया वह आंख में आंख डालकर सवाल नही पूछ सकता। इसके लिये बराबरी में सामने खड़ा होना होगा। मेरा मानना है जिस पत्रकार की सत्ता, सरकार में गहरी पैठ है वह पत्रकार नही दलाल है। पत्रकारिता को जीवित रखना है तो सत्ता के साथ नही बल्कि सच के साथ खड़ा होना पड़ेगा, फिर चाहे सत्ता हो या विपक्ष आइना और अंदाज दोनो में एक ही होगा।

फिलहाल आज हमारा फोकस बस्ती जनपद की पत्रकारिता पर है जहां 60 से 90 के दशक में लोगों ने अपनी योग्यता क्षमता से जनपद को गौरवान्वित किया है। ये बीते समय की बात है, हम तो फिर भी मई 92 से सक्रिय हैं। लोग बताते हैं इन तीस सालों में पत्रकारिता अनिल कुमार श्रीवास्तव, राजेन्द्रनाथ तिवारी, दिनेश चन्द्र पाण्डेय, लक्ष्मीनरायन, अशोक श्रीवास्तव, मजहर आजाद, हरीश पाल, ईशदत्त ओझा, अमरनाथ मानव, जयंत कुमार मिश्रा, केडी मिश्रा, ध्रुवनरायन पाण्डेय, श्रवण कुमार, डा. सत्यव्रत के हाथों में थी। इनमे कई लोग लेखनी के धनी थे, कुछ लाइजनिंग में माहिर थे तो कुछ अच्छाई, सच्चाई के लिये चाहे जिससे भिड़ जाते थे। इसी समूह में देशद्रोह तक मुकदमा झेलने वाले पत्रकार भी हैं। लेकिन इसी में कुछ ऐसे भी हैं जो 50 साल की पत्रकारिता के बावजूद लेखनी से विपन्न हैं। वे आज भी खबरों के लिये दूसरों पर निर्भर रहते इनमे कई लोग हैं जिनकी पहचान गैर जनपदों में भी है। वहां के पत्रकारों में इनका नाम लीजिये तुरन्त पूछते हैं. आप उनको जानते हैं।
इसके बाद की पीढ़ी ने जिम्मेदारी संभाल लिया है। 90 से 2020 की पत्रकारिता अरविन्द श्रीवास्तव, संदीप गोयल, पुनीतदत्त ओझा, संजय द्विवेदी, अवधेश त्रिपाठी, सुरेन्द्र पाण्डेय, सज्जाद रिज़वी, राजेश शंकर मिश्रा, दिनेश मिश्रा, राजेश पाण्डेय, अशोक श्रीवास्तव, आलोक त्रिपाठी, प्रमोद श्रीवास्तव, एसपी श्रीवास्तव, नीरज श्रीवास्तव, संजय शर्मा, कमलेश पाण्डेय, मनोज सामना, दिनेश दूबे के हाथों में थी। इसी कालखण्ड में इंटरनेट और स्मार्ट फोन का विस्तार हुआ। धीरे धीरे लिखने पढ़ने का सिलसिला दम तोड़ने लगा। डिजायनर पत्रकारिता के बीच एक नई और अधुनिक विधा विकसित हुई, कट पेस्ट की। अब पत्रकारिता के क्षेत्र में सफल होने या नाम बड़ा करने में ज्यादा कुछ नही करने की जरूरत है, बस कट पेस्ट में आपको माहिर होना चाहिये। इसी पीढ़ी से समाचार लिखने वाले पत्रकारों का अकाल शुरू हो गया। भला हो उन लिखने पढ़ने वाले गिने चुने पत्रकारों का जो इस पीढ़ी को ऊर्जा दे रहे हैं। इसी कालखण्ड में कुछ ऐसे पत्रकार हैं, जो मीडिया संस्थान चला रहे हैं लेकिन उन्हे खुद भी नही पता कि उनके यहां आज कौन सी खबर आनलाइन हुई है। जबकि कुछ लोगों ने अपनी लेखन क्षमता का लोहा मनवाया है।
दिनेश पाण्डेय, अजय श्रीवास्तव, अनिल कुमार पाण्डेय, अनुराग श्रीवास्तव, महेन्द्र तिवारी, अमर सोनी, राहुल पटेल, राकेश तिवारी, राकेश गिरि, रजनीश तिवारी, अनूप मिश्रा, राजेन्द्र उपाध्याय, सुनील मिश्रा, सर्वेश श्रीवास्तव, संतोष श्रीवास्तव, देवेन्द्र पाण्डेय, अभिषेक गौतम, अब्दुल कलाम, राज प्रकाश, कपीश मिश्रा, सर्वेश श्रीवास्तव (तरूणमित्र) अनिल कुमार श्रीवास्तव, अमन, लालू यादव, जीशान हैदर रिज़वी,अरूण कुमार, इमरान खान, मनोज यादव, हरिओम लल्ला, सतीश श्रीवास्तव, सोनू सिंह, वसीम अहमद, लवकुश सिंह, विवेक मिश्रा, अनिल राठौर, बबुन्दर यादव, राजू शुक्ल, कमलेश सिंह, पारसनाथ मौर्या, राघवेन्द्र सिंह, विवेक श्रीवास्तव, वशिष्ठ पाण्डेय, हेमन्त पाण्डेय, राजकुमार पाण्डेय, अरूणेश श्रीवास्तव, लवकुश यादव, जितेन्द्र कौशल सिंह, रिजवान, हिमांशु वैश्य, अब्दुल कलीम, आशुतोष मिश्रा आदि तीसरी पीढ़ी के पत्रकार हैं जो पत्रकारिता में अब सक्रिय है।

इनमे लिखने पढ़ने वालों के नाम गिनना शुरू करेंगे तो उंगलियों पर सिमट जायेंगे। कुछ इलेक्ट्रानिक मीडिया में अपना नाम बड़ा कर चुके हैं। बाकी के लिये खबर से ज्यादा ब्रेकिंग न्ूयूज की अहमयित है। पत्रकारिता के बड़े बड़े सूरमा ब्रेकिंग न्यूज लिखने वालों के आगे नतमस्तक हैं। इसका इतना भयानक असर है कि खबर ब्रेक होने के कुछ ही मिनटों में परिणाम आने लगते हैं। पत्रकार को धमकी, मिठाई खाने का पैसा, थाने में तहरीर या फिर कुछ वरिष्ठ व निकट सम्बन्धों की सिफारिशें। मसलन ब्रेकिंग से ही ज्यादातर काम चल जाता है, बात खबर तक नही पहुचने पाती। ऐसी खबरें लिखने का अंदाज भी बहुत गजब का होता है जैसे ‘‘जनपद के पुलिस कप्तान बेंचवा रहे हैं गांजा’’ आज की सबसे बड़ी खबर, परसरामुपर पुलिस ने 50 ग्राम गांजे के साथ तस्कर को किया गिरफ्तार’’ ‘‘ग्राम प्रधान जायेंगे जेल’’। जिम्मेदारी नाम की कोई चीज नहीं, शब्दों की मर्यादा गई जहन्नुम में।
नेता, घूसखोर, भ्रष्ट विभाग और अफसर इनके निशाने पर होते हैं। उन्ही से इनकी होली और दिवाली होती है। पत्रकारों की जेब में ऐसे अधिकारियों और विभागों की बाकायदा लिस्ट है। 26 जनवरी, होली दिवाली, नया साल जैसे मौके पर इनको अपनी जेब ढीली करनी पड़ती है। 500 से 1000 रूपया पाने के लिये पत्रकार इनके ठिकानों पर घण्टों बैठे रहते हैं। कई अधिकारियों और नेताओं के यहां तो उनके व्यक्गित सहायक हैं। उन्ही के इशारे पर त्योहारी बांटी जाती है। ऐसे सभी पत्रकारों के पास किसी न किसी संस्था का आई कार्ड है। वे संस्थान को उतना ही विज्ञापन भेजते हैं जिससे नौकरी पक्की रहे बाकी पैसा जेब में रह जाता है और उनका संपादक कुछ नही से कुछ बेहतर समझकर खुश रहता है। मजे की बात ये है कि जो नेताओं, अफसरों के यहां दरबार लगाता है, तीज त्योहारों पर उनसे त्योहारी लेता है मौजूदा परिवेश में वही पत्रकार है। बाकी अपनी अहमियत खो चुके हैं।
बस्ती की पत्रकारिता में एक परिवार ऐसा है जिसकी तीन पीढ़ियां पत्रकारिता में सक्रिय हैं और सभी अपना लोहा मनवा चुके हैं। उनकी चर्चा किये बगैर बस्ती की पत्रकारिता पर बहंस पूरी नही होती। हम बात कर रहे हैं दिनेश चन्द्र पाण्डेय की। दूसरे जिलों और प्रदेशों तक इनका नाम है। कहते हैं देशद्रोह का मुकदमा तक इन पर लिखा जा चुका है। जिद्दी स्वभाव के हैं ठान लेते हैं तो कोशिश की हद तक जाते हैं। तीसरी पीढ़ी के लोग भी इनकी संगत में बैठते हैं। उम्र वर्ग का कोई अंतर नहीं, युवा पत्रकारों से वे मित्रवत बात करते हैं। इनके सुपुत्र के पास दुनिया भर की जानकारी है, लगता है पत्रकारिता के लिये ही बने हैं। गैर जनपदों तक उनका नाम है। लेखनी में उनके उम्र वर्ग में कोई बराबर खड़ा नही हुआ। इनकी नजरों के सामने बेटे राहुल ने पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखा। जिस संस्था में कार्यरत है संस्था उस पर गर्व करती है। लेकिन इन तीनो पीढ़ियों में कोई राग दरबारी नही हुआ, कोई किसी दल का मुखपत्र नही हुआ, किसी नेता, अफसर, व्यापारी के यहां त्योहारी लेने गया। हमारे मन में एक सवाल हमेशा खड़ा होता है कि हमारी पिछली दो पीढ़ियों ने बस्ती की पत्रकारिता को जो दिया है, क्या वो हम अगली पीढ़ी को ट्रांसफर कर पायेंगे ?

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