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बाराबंकी
जिन बच्चों के मन-मस्तिष्क में अपने परिवार, पास-पड़ोस, देश दुनिया के प्रति कुछ इस प्रकार के विचार होने चाहिए या फिर ये कहा जाए कि बीते समय में होते भी थे..
“लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी जिंदगी शम्मा की सूरत हो खुदाया मेरी।
दूर दुनिया का मेंरे दम से अँधेरा हो जाए,हर जगह मेरे चमकने से उजाला हो जाए।हो मेरे दम से मेरे वतन की ज़ीनत जिस तरह फूल से होती है,चमन की जीनत।”
अल्लामा इकबाल जी, की इन पंक्तियों का हर बच्चे के होंठों पर होने के साथ-साथ उनके अनगढ़ जीवन-चरित्र को गढ़ने का मार्ग सुझाती है। लेकिन वर्तमान समय की दशा बच्चों को अपराध की दुनिया की ओर निरंतर धकेल रही है।यह विषय किसी भी माता-पिता, परिवार, समाज के साथ-साथ देश की एक बड़ी चुनौती बन कर उभर रहा है, जो बच्चे कभी कहते थे
माँ, मुझको बन्दूक मंगा दो,मैं भी लड़ने जाऊँगा, इन नन्हें- नन्हें हाथों से दुश्मन् को मार भगाऊँगा।
वो बच्चे महज तीन वर्ष के होते ही अपने से बड़े साथियों को पिस्तौल से मारने जैसी घटना को अंजाम दे रहे हैं।
सोचने वाली बात है आखिर क्यों और कैसे छोटे- छोटे बच्चे समय से पहले ऐसी घटनाओं से परिचित हो रहे है? किन कारणों से बच्चे इतने आक्रामक हो रहे है?क्यों वे अपनी भावनाओं पर नियंत्रण नहीं रख पा रहे हैं?ऐसा व्यवहार धीरे-धीरे अपराध प्रवृत्तियों का रूप ले लेता है. जिन्हें रोक पाना कठिन हो जाता है, जैसा कि कहा जा सकता है कि कोई व्यक्ति जन्म से अपराधी नहीं होता बल्कि वातावरण और परिस्थितियां किसी व्यक्ति को ऐसा बना देती है। ऐसे बच्चे सामान्य जीवन से दूर हो जाते है. और सामान्य जन में क्लेश उत्पन्न करने लगते है।ऐसे ही न जाने कितने बच्चे अपने बचपन की मासूम सी, दुनिया खोकर अपराध की दुनिया में अपने अनबूझे कदम रख ही देते हैं। जो बच्चे अपने कन्धों पर देश का भविष्य रखते है, उनकी ऐसी दुर्दशा वास्तव में सोचनीय है।
अगर देखा जाए तो आजकल की व्यस्त जीवनशैली, बाजारवादी संस्कृति, एवं सूचनाओं का सहज प्राप्त हो जाना। इस प्रकार की समस्या के प्रमुख कारण बन रहे हैं। इंटरनेट की खुली दुनिया में हर प्रकार की जानकारी सहज ही प्राप्त हो जाती है, लिखना भी नहीं पड़ता, केवल बोलकर ही किसी भी तरह की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। समस्या जानकारी प्राप्त करने तक ही सीमित हो तो यह हितकर होगा, क्योंकि इसके सकारात्मक प्रभाव देखने को मिलेंगे परन्तु उन जानकारियों में प्रायः चरित्र व मन मस्तिष्क पर नकारात्मक प्रभाव डालने वाले अनेक प्रकार के ऑडियो-वीडियो सहज ही उपलब्ध हो जाते है, जिनका कवर या फिर शीर्षक इतना रहस्यमयी होता है कि बच्चा-बूढ़ा कोई भी हो, मानवीय जिज्ञासु-प्रवृत्ति उसे खोल कर, उसमें दी गई जानकारी को जानना लक्ष्य सा बन जाता है। फिर उसके नकारात्मक प्रभाव जीवन पर परिलक्षित होना शुरु हो जाते हैं। आजकल बम बनाना, जहर बनाना, किसी को कैसे मारते है, इस तरह के ना जाने कितने और कैसे-कैसे ऑडियो-वीडियो इंटरनेट पर मिल जाते है, जिन्हें कोई भी आसानी से देख सकता है। चूँकि बच्चे स्वयं को हमेशा अपनी उम्र से बड़ा ही समझते है, कम उम्र में ही सबकुछ जान लेने की उत्कण्ठा, उन्हें हर उस विषय को जानने की जिज्ञासा पैदा कर देती है, जिसको जानना उनके लिए आवश्यक भी नहीं है, वरन् उसका नकारात्मक प्रभाव भी पड़ेगा।
आए दिन बलात्कार की घटनाएँ समाचारपत्रों
में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है,” ग्यारह
साल के बच्चे ने 5 साल की बच्ची का किया रेप। 3 साल की बच्ची से हुआ रेप। इस प्रकार, की सुर्खियाँ आए दिन लगभग हर न्यूज चैनल या समाचार-पत्र में मिल ही जाएगी।
एक समय था जब बच्चों को 14-15 वर्ष की आयु तक पता ही नहीं होता था कि वे जन्मते कैसे है? ग्रामीण परिवेश के लोग बच्चों को बताते थे,कभी बरगद के पेड से गिरे है, या मंदिर से उठा लाए है, या कूड़े के ढेर से प्यारा खजाना मिला।इस प्रकार से हास-परिहास के रूप में जन्म हुआ है, यह बताया जाता है। या अस्पताल वाली चाची से मांग कर लाया गया। एक परिपक्व आयु होने पर सच्चाई पता चलती थी कि हमारा जन्म इस प्रकार हुआ। लेकिन अब घर का परिवेश ऐसा हो गया है कि बच्चों से कुछ भी छिपना मुश्किल है। घर में केवल माता-पिता एवं बच्चा है, बच्चे भी एक या दो। एकल परिवार है, बच्चा या तो साथ ही सोता है या अलग कमरे में। उसके मन में तरह-तरह के विचार आते हैं। उसके पिता हीरो और माता किसी साहसी हीरोइन से कम नहीं होती परन्तु माता पिता के अनुशासन हीन व्यवहार से बच्चे का मानस पटल दूषित हो जाता है और ऐसे कृत्यों के प्रति खोज बीन शुरू करके स्वयं भी वैसा करने का प्रयास करता है, जिसका दुष्परिणाम देखने को मिलता है। यहाँ तक कि कानून भी ऐसी स्थितियों के लिए तैयार नहीं है, 12 वर्ष से कम आयु के बच्चे को किसी भी प्रकार की सजा से दूर रखा गया है। सभी प्रकार की कार्यवाहियों के प्रावधान से दूर रखता है। कानून 7 से 12 वर्ष के बच्चों को डोली-इन कैपेक्स (ऐसा व्यक्ति जो बुराई करने में असमर्थ हो) सजा नहीं देनी चाहिए। ऐसा कहता है।लेकिन वर्तमान दशा बच्चों को बेहद कम उम्र की आयु से ही अपराधी प्रवृतियों ने संलिप्त दर्शाती है।प्रायः लोग इन स्थितियों के होने का एक प्रमुख कारण सोशल मीडिया को मानते है, ये बात सच हो सकती है लेकिन पूर्णतया नहीं।
देश में संचार व्यवस्था तेजी से विकसित हो रही है। कैसी भी घटना हो, कैसी भी सूचना हो आग की तरह,सोशल मीडिया पर प्रसारित हो जाती है, कुछ में वास्तविकता होती है, कुछ में नहीं। इन से प्रभावित बच्चे भी होते हैं, उनतक भी ऐसी सूचनाएँ पहुंचती है। वास्तव में अब बच्चों का बचपन ना तो सरल रह गया है ना ही सुरक्षित क्योंकि 5 वर्ष तक की आयु के बच्चों का 80% मानसिक विकास हो जाता है। यदि उसका मस्तिष्क व्यर्थ बातें ग्रहण करेगा तो उसके चरित्र पर उन बातों का असर दिखना तय है। न तो बच्चे को सोशल मीडिया या इंटरनेट की दुनिया से दूर किया जा सकता है ना ही उन्हें इस पर पूरी तरह निर्भर रहने दिया जा सकता है, क्योंकि उन बच्चों को इसी दुनिया- समाज का हिस्सा बन कर रहना है। वास्तव में जरूरत इस बात की है कि उन्हें इसके नकारात्मक प्रभाव से बचाया कैसे जाए? क्योंकि हर बच्चा अलग अलग वातावरण में पल रहा है। उसके कार्य व्यवहार उसी के अनुरूप होगें। जिन बच्चों के माता पिता 1जी बी डेटा प्रतिदिन ही वहन कर सकते उनका बच्चा अध्ययन से जुड़ी वस्तुएँ देखकर संतुष्टहो जाएगा, लेकिन जिनके यहां वाई-फाई लगा है, वे पढ़ने के बाद अनावश्यक खोजबीन करेंगे।
अब ऐसी स्थितियों में बच्चों की देखभाल और आवश्यक होने पर ही सोशल मीडिया का प्रयोग करवाने की जिम्मेदारी कौन लेगा? यह भी एक चुनौती है, उन माता- पिता के लिए जो अपने बच्चों को भरपूर समय नहीं दे सकते बच्चे धीरे-धीरे अपना अधिकांश ऑनलाइन गेम्स, दोस्तो से चैटिंग में बिताते है। इनके दुष्प्रभाव से वे अपनी जीवन-लीला भी समाप्त करने में जरा भी नहीं हिचकते, क्योंकि जब वे इसके आदी हो जाते है, तो इसपर की जाने वाली रोक उन्हें बर्दाश्त नहीं होती। बच्चे धीरे-धीरे धैर्यहीन होते जा रहे हैं। क्रोध-हिंसा, आक्रामकता उनके जीवन का हिस्सा बन रहे हैं। जिस सामान्य परिवेश में उनका मासूम बचपन किसी पुष्प की तरह खिलता वह खिलने से पहले ही मुरझा जा रहा है। मिट्टी के खिलौनों से खेलना, कबड्डी, खो खो खेलने के सपने देखना,दादा जी को चश्मा कैसे लगा? मेरी तरह भाग-दौड़ क्यों नहीं कर सकते, कविता- कहानियाँ, नृत्य करना,फूल फुलवारियों में समय बिताना ।ये सब कहीं खोता जा रहा है।
आजकल बस खाने के लिए जंक फूड, खेलने के लिए मोबाइल फोन, दोस्ती इंस्टाग्राम, फेसबुक पर, घूमने के लिए शिमला- मसूरी ऐसे सपने लेकर आज का बच्चा जी रहा है, उपहार में महँगे गैजेट्स और अन्य महंगी महंगी वस्तुओं की लालसा जिनके पूरे न होने पर क्रोध, आक्रोश, हिंसात्यक रवैया अपना रहे है। मासूम बच्चे कब बड़े हो गये है।पता ही नहीं चलता।
ऐसी स्थिति के जिम्मेदार कोई कारण नहीं है। इसका एक कारण विखंडित परिवार भी हो सकता है। वर्तमान समय में निरन्तर बदलाव हो रहा है, पहले संयुक्त परिवार में बच्चे पलते थे। चाचा- चाची, ताऊ-ताई, दादी-बाबा, चचेरे भाई बहन सब साथ रहते थे, रिश्तों की समझ बनती थी। एक की गलती सभी हमउम्रों पर भारी पड़ती थी। सबसे बड़े बच्चे की जिम्मेवारी होती थी कि कोई गलती न हो, जो तुम करोगे तो बाकी भी वैसे बन जाऐंगे। लेकिन आज संयुक्त परिवार का स्थान एकल परिकर ने ले लिया है। हम दो हमारा एक। यहाँ तक कि माता- पिता को भी रखना दुश्वार होता है, उन्हें वृद्धाश्रम भेज दिया जाता है, बच्चे जिन्हें दादा-दादी से भावनात्मक जुड़ाव होता है उनसे भी दूरी हो जाती है। माता-पिता नौकरी पेशा है, बच्चों को भरपूर समय नहीं दे पा रहे इस कारण बच्चे दिशाहीनता का शिकार होते है। वे आया या केयरटेकर के सहारे घर पर अधिकांश बिताते है। वे सब बिना लगाव के उनकी देखभाल करते है ऐसे ही लोग कुत्सित मानसिकतावश मासूम बच्चों के साथ शारीरिक छेड़छाड़ भी करते हैं। खेल बताकर, माँ बाप को मत बताना ऐसा बोलकर अनजान बच्चों से ऐसी हरकतें करते हैं। बड़े होने पर वही बच्चे मां-बाप के प्रति क्रोधित रहते हैं। बदले का भाव व्याप्त हो जाता है वे स्वयं असहज महसूस करते है। कई बार तो माँ-बाप बच्चा पैदा हो या पालने के लिए मानसिक- आर्थिक रूप से तैयार ही नहीं होते घर-परिवार समाज या जागरूकता के अभाव में बच्चे पैदा हो जाते है फिर उनका उचित पालन-पोषण करना उस प्रकार का नहीं कर पाते जो आज के चुनौती पूर्ण युग में अत्यन्त आवश्यक है।
कई बार माँ-बाप कच्चे को इतना लाड़ – प्यार दे देते हैं, हर अच्छी-बुरी बात कर सहमत हो जाना भी बच्चे का दिशाहीनता की ओर ले जाता है। विशेषतः लड़कों के प्रति मां-बाप, दादी बाबा अधिक ध्यान देते हैं कि यहीं आगे चलकर वंश वृद्धि करेगा, हमारा तारणहार है और न जाने क्या-क्या? जिसके कारण बच्चे में अपना अच्छा-बुरा समझने की क्षमता समाप्त हो जाती है। क्योंकि उसकी हर सही गलत बात को सही ढंग में ही माना गया है।
स्कूली परिवेश बच्चे के मस्तिष्क पर प्रभाव डालता है, क्योंकि वहां अलग-अलग परिवेश के बच्चे आते है उनका रहन सहन, खान-पान बदला होता है पर सब साथ पढ़ते हैं, अपने विचार एक-दूसरे से बाँटते है और सीखते हैं। अक्सर ऐसी उम्र में बच्चे जिस समूह में रहते है, या उनकी मित्रता कभी-कभी ऐसे बच्चोंसे हो जाती है जो दिग्भ्रमित है. उन्हें कहीं से कच्ची- पक्की जानकारियां मिली उन्होंने अपने मित्रों में बांट दी। उनमें कुछ पर उनका नकारात्मक प्रभाव पड़ा जो अधिक स्वतंत्र परिवेश में रहते हैं।
घर परिवार का संघर्षपूर्ण वातावरण भी बच्चों को अपराधी भाव से भर देता है। बड़ों में रोज होती लडाइयाँ, तानाकसी बच्चों में अपना-पराया जैसी भावना भरती है। माँ बाप के बीच आपसी दुराव से भी बच्चे एकाकीपन से जूझते हैऔर गलत प्रवृत्तियों के शिकार होते है। लेखिका भन्नू भंडारी में, अपने उपन्यास ‘आपका बंटी में इस विषय पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला है। बच्चों की दुर्गति का एक कारण यह भी है। माँ-बाप दोनों नौकरी पेशा है किसी बात की अनबन से दोनों अलग होना चाहते है बिना किसी बात की परवाह किये कि बच्चे के लिए माँ-बाप दोनों का साथ होना और प्रेमपूर्वक रहना कितना आवश्यक है। आजकल का सिनेमा और बन रही फिल्मों की विषयवस्तुएँ इतनी अनोखी या विचित्र है। कि वे कल्याणकारी न होकर के, केवल व्यक्ति-विशेष या एक वर्ग की प्रधानता को ही दर्शाती है, जिनको आजकल बच्चों तक भी पहुंचने से नहीं रोका जा सकता। भोजपुरी फिल्मी दुनिया का असर आजकल लगभग हर शादी-विवाह में शामिल होता है, जिन पर बच्चे बड़े सभी थिरकते नज़र आते हैं, लेकिन यही सिनेमा जगत बच्चों पर अपना बुरा प्रभाव डाले बिना नहीं रहता।धीरे-धीरे बच्चे ऐसे परिवेश से अपने चरित्र का निर्माण करते हैं, जो परिश्रम त्याग, सहायता, साहस, कर्तव्यनिष्ठा, ईमानदारी से कोसो दूर है। धैर्य सत्य, गम्भीरता, नैतिकता जैसे गुणों से अपरिचित से है। बच्चे स्वस्थ परिवेश के स्थान पर ऐसे परिवेश में जीने को मजबूर है जो वास्तव में उनके लिए हानिकारक है। बच्चे सामान्य-सहज समझदार हो, अपराधी प्रवृत्तियों से दूर रहे इसके लिए उनका लालन-पालन समुचित रूप से करना होगा, माँ-बाप मानसिक-आर्थिक रूप से बच्चों के लिए तैयार हों।बच्चे की देखभाल या निगरानी इसप्रकार करनी होगी कि वह स्वतंत्र रहे लेकिन आप हमेशा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से उसके साथ रहे। बच्चे के साथ अनुशासित लेकिन मित्रवत् रहें, जिससे वह अपने साथ घटी हर छोटी-बड़ी घटना सबसे पहले आपको बतायें और आप उनको जान कर अच्छा बुरा प्रभाव बताकर निर्णय लेने में बच्चे की मदद करें, स्वयं निर्णय न लें क्योंकि बच्चा खुद को बड़ा समझने लगता है, उसको सही-गलत से परिचित करा कर यदि उसका सुझाव मांगे। जिससे भविष्य में यदि अभिभावक की अनुपस्थिति में भी यदि ऐसी स्थितियां बनती है तो वह अपने साथ साथ दूसरे बच्चों को भी उचित सीख देगा।
वह भी सही गलत के प्रति स्वविवेक का प्रयोग कर सकेगा। इस प्रकार से वह अपना बचपन स्वस्थ वातावरण में खुल कर सुरक्षित रूप से जी सकेगा।