तपती दोपहरी में दो वक्त की रोटी के लिए जो
बाराबंकी, इतनी महंगाई है कि बाजार से कुछ लाता हूं, अपने बच्चों में उसे बांट के शर्माता हूं। किसी शायर की यह लाइनें वास्तविकता के कितने करीब हैं। आज तारीख है दो जून। बचपन से एक कहावत सुनते और पढ़ते आ रहे हैं, 2 जून की रोटी नसीब वालों को ही मिलती है। वहीं महंगाई के इस दौर में लोगों को दो जून की रोटी के लिए बहुत से पापड़ भी बेलने पड़ते हैं। ‘दो जून की रोटी’ के लिए इंसान क्या नहीं कर जाता। पेट की आग बुझाने के लिए इन्सान बाजारों में बिकने के लिए खड़ा हो जाता है और काम न मिलने पर रात फुटपाथों पर सोकर बिताने को मजबूर होता है।
यह नजारा सुबह सुबह शहर के छाया चौराहे और सतरिख नाका चौराहे पर आसानी से देखा जा सकता है। बेरोजगारी का दंश झेल रहे रोज सैकड़ों की संख्या में गांव से मजदूरी की तलाश में लोग आते हैं। एक दिन का रेट तय होता है। कुछ को तो काम मिलता है और कुछ काम न मिलने की वजह से निराश लौट जाते हैं। शुक्रवार को भीषण गर्मी और लू की वजह से चार लोगों की मौत हुई।
अप्रैल महीने में जिले के अलग-अलग क्षेत्रों में बिजली की फाल्ट ठीक करते समय तीन लोगों की मौत हो गई। इन घटनाओं ने लोगों के कलेजे को हिला कर रख दिया। यह घटनाएं आम नहीं थीं। बल्कि दो जून की रोटी के लिये थी। पेट की आग को बुझाने और बच्चे भूखे पेट न सोयें, इसके लिए मां बाप बाजार में कठिन परिश्रम कर जीवन दांव पर लगा देते हैं। तो बहुत से लोग ऐसे भी है जो जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही ‘दो जून की रोटी’ के लिए खून पसीना एक कर देते हैं। संविधान रक्षक समाचार पत्र के मंडल ब्यूरो को कुछ ऐसी ही तस्वीर देखने को मिलीं, जिसे देखकर सभी को दो जून की रोटी के लिये मेहनत और मजबूरी का एहसास हुआ।
स्थान बडे़ल
दोपहर का वक्त प्रचंड गर्मी और पसीने से लथपथ अधेड़ का जिस्म। ढेलिए पर लदी कुन्तलों सरिया को पूरी ताकत से खीचता अधेड़ थोडी़ दूर जाकर रूककर गहरी सांसे लेता दिखा। पांच मिनट रूककर कन्धों पर रखे मटमैले गमछे से बदन के पसीने को पोछा और दो जून की रोटी के लिये फिर ठेलिए को खींचने लगा।
स्थान लखपेड़ा बाग
एकहरा बदन, जीन्स की पैंट और ऊपरी हिस्से में बनियान। बनियान शायद इसलिए कि तेज धूप और ट्रांसफार्मर की तपिश के बीच फाल्ट को ढूंढने के लिए आधे घंटे से बिना किसी सेफ्टी किट के हाथ में प्लास लिए नौजवान बिजलीकर्मी अपनी जान को जोखिम में डाल काम कर रहा था। बदन से पानी की धार की तरह पसीना बह रहा था। यह सब कुछ सामान्य परिस्थितियों में नहीं बल्कि दो जून की रोटी के लिये हो रहा था।
- लाजपत नगर मोड़
यातायात नियमों को भी दरकिनार कर जान जोखिम में डालकर ई-रिक्शा वाला ओवर लोड गन्ने को बताई गई जगह पर पहुंचाने के लिए रिस्क लेने को मजबूर दिखा। उसे इस बात की परवाह नहीं कि अगर ई-रिक्शा पलट गया तो उसका क्या होगा। उसे अपनी मुफ्लिसी के आगे कुछ सूझ नही रहा था। बस अपनी दो जून की रोटी का जुगाड़ करना था। - लखपेडा़बाग चौराहा
दोपहर का समय और 43 डिग्री तापमान ठेले पर दाल को पैदल घसीटता वृद्ध। कौन होगा जिसने देखा हो और उसका दिल न पसीज गया हो। इसे उस वृद्ध की खुद्दारी कहें या जीवेष्णा या ये कहें कि जिम्मेदारियों का बोझ और दो जून की रोटी के लिए उम्र के इस पड़ाव में भी वह जद्दोजहद करने में जुटा है।