• बहेरा सादात गांव में हर साल मुहर्रम की पहली तारीख से लगता है मजमा
  • करबला वालों की याद में रोज होती हैं मजलिशें, मातमख्वानी और लंगर
  • राष्ट्रीय पत्रकार महासंघ के प्रदेशाध्यक्ष शहंशाह आब्दी के यहां बरसों से होती आ रही है अज़ादारी

फतेहपुर। खागा तहसील क्षेत्र के बहेरा सादात गांव में हर साल की तरहा इस साल भी वरिष्ठ पत्रकार पत्रकार एवं राष्ट्रीय पत्रकार महासंघ के कार्यवाहक प्रदेशाध्यक्ष शहेंशाह आब्दी के आवास पर कर्बला के शहीदों की याद में एक मजलिस का आगाज़ हुआ और बाद मजलिस हज़रत अली असगर का झूला उठा और पूरे गाँव में भ्रमण के बाद वापस पूर्व स्थान पर समापन हुआ, जिसमें जिला अम्बेडकर नगर के मौलाना अज़ीम रिज़वी ने करबला के शहीदों की शहादत का ज़िक्र करते हुवे बताया कि करबला की जंग में मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन ने वो जंग जीती है जो लाखों के लश्कर पे अपने बहत्तर साथियों के साथ जीती हुई एक जंग थी। एक तरफ लाखों का लश्कर था तो एक तरफ हुसैन के बहत्तर वफ़ादार साथी थे जो हक़ के साथ रसूल के नवासे इमाम हुसैन के साथ थे। एक तरफ पानी था, खाना था तो दूसरी तरफ़ भूख थी, प्यास थी फिर भी इबादत थी । वहीं दूसरी तरफ़ नशे और घमंड में चूर वो फ़ौज थी जिसके पास शराब थी, जुवे के अड्डे थे और अय्याशी के अड्डे थे। यज़ीद हर उस काम को अंजाम देता था जो अल्लाह की तरफ से हराम करार दिये गये थे। यज़ीद इमाम हुसैन से चाहता था कि वो मेरे सारे हराम कामों पर अपनी मोहर लगा दें लेकिन इमाम हुसैन ने हराम कामों पर मोहर लगाने से इंकार कर दिया जिससे यज़ीद परेशान हो गया और हुसैन के घराने पर हर तरह के ज़ुल्मो सितम करना प्रारम्भ कर दिया। हद तो जब हो गई कि यज़ीदियों ने हुसैन के उस बेटे को भी क़त्ल कर दिया जिसकी उम्र सिर्फ 6 माह की थी जो बोल भी नहीं सकता था, कुछ समझ भी नहीं सकता था। तीन दिन की भूख प्यास से अली असगर की मां का दूध भी खुश्क हो चुका था, बच्चा भूख प्यास से तड़प रहा था। बाप से जब बच्चे की भूख प्यास देखी ना गई तो बच्चे को गोद में लेकर मैदाने जंग की तरफ चले और यज़ीदी लश्कर से मुख़ातिब हो कर कहा कि देखो अगर तुम्हारी नज़रों में मै कुसूरवार हूं तो ये 6 माह का बच्चा तो कुसूरवार नहीं है, ये भी तीन दिनों का भूखा प्यासा है अगर हो सके तो इस बच्चे को एक कतरा पानी दे दो, लेकिन ज़ालिमों ने ज़ुल्म की सारी हदें पार कर दी और उस 6 महीने के बच्चे को उस तीर से जिब्हा किया जिस तीर से जानवर जिब्हा किये जाते हैं।
यज़ीद ने एक ऐसे घराने को भूखा प्यासा रखा जो रसूल अल्लाह के नवासे थे जो बातिल जंग के खिलाफ़ थे, हक़ की पैरवी कर रहे थे। यज़ीद के हर वो काम को गलत बता रहे थे जो इस्लाम में हराम करार दिये गये हैं। इमाम हुसैन का मकसद था कि अपने नाना के दीन को हर हाल में बचा लें और बचाया भी। इमाम हुसैन ने अपने भरे घर को करबला की जंग में राहे इस्लाम पर कुर्बान कर के ये बता दिया कि देखो कभी भी बातिल के आगे झुकना मत जब हक़ की बात आ जाये तो तुम हक़ के साथ खड़े होना। करबला की जंग से हमको ये नसीहत लेनी चाहिए कि हक़ हमेशा कामयाब होता है और बातिल हमेशा पस्त होता है। करबाला में लाखों की फ़ौज वाला हार गया और बहत्तर साथियों का हुसैन जीत गया, यज़ीद मिट गया और इमाम हुसैन का गम आज दुनिया के कोने कोने में मनाया जाता है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here