चुनाव को महज जीत-हार के तराजू पर नहीं तौला जाता!
“जो जीता वही सिकंदर “का मुहावरा लगभग प्रत्येक भारतीय की जुबान से हर चट्टी,चौराहे ,चौपाल और आम बोलचाल में खूब बोला,सुना,सुनाया और समझाया जाता हैं। यह मुहावरा हमारे आम जनमानस के आम जन-जीवन में गहरे रूप से व्याप्त है और व्यापक रूप से चलन-कलन में पूरी मजबूती से कायम हैं। न जाने किस भाषाविद् या मुहावराविद् या व्याकरणाचार्य ने इस मुहावरे को जन्म दिया, परन्तु अनपढ़ ,गवंई गवाँर ,शहरी, समझदार और पढें लिखें लोग-लुगाई समान रूप से इस मुहावरे का प्रयोग आम बोलचाल में करते हैं। अब तो टीवी चैनलों के समाचार वाचक और प्राइम टाइम चलाने वाले एंकर भी इस मुहावरे का प्रयोग धडल्ले से करने लगे हैं।
इस मुहावरे का ऐतिहासिक अवलोकन करने पर पता चलता है कि-इस मुहावरे का जन्म यूनानी सम्राट सिकन्दर के बाद ही हुआ होगा क्योंकि इस मुहावरे का गहरा और आत्मिक संबंध सिकन्दर से स्पष्टतः परिलक्षित होता है। उस दौर में तलवारो के बल पर युद्ध जीतकर दूसरे राजाओं के भू-भाग को कब्जा करना महानता की परिभाषा में आता था जो जितना बड़ा भू-भाग जीत लेता था वह उतना ही बड़ा और महान सम्राट कहलाता था । इसलिए कुछ इतिहासकारों ने तलवार के बल विश्व विजेता बनने की चाहत रखने वाले यूनानी सम्राट सिकन्दर को “महान सिकन्दर ” से इतिहास में विभूषित किया है। परन्तु आज पूरी दुनिया लोकतंत्र के रंग में रंग चुकी हैं और पुरी दुनिया में लोकतंत्र की बयार बह रही है। जिन गिने-चुने देशों में राजतंत्र हैं वहाँ भी लोकतंत्र के लिए आवाज उठ रही है और आन्दोलन हो रहे हैं। यही नहीं पूरा वैश्विक परिदृश्य और परिवेश लोकतंत्र के रंग में रंगता जा रहा है।
लोकतंत्र की बढती महत्ता का प्रभाव है कि-आज दुनिया के 210 देशों के संगठन संयुक्त राष्ट्र संघ ने पंचशील के सिद्धांत को स्वीकार और अंगीकार कर लिया है। जिसका निहितार्थ हैं प्रत्येक बडे और हर दृष्टिकोण से शक्तिशाली भी देश प्रत्येक छोटे से छोटे देश की सरहद, सम्प्रभुता ,अक्क्षुणता और अखंडता का सम्मान करेंगे।अगर कोई देश किसी देश की सरहद का अतिक्रमण करेगा या उसकी सम्प्रभुता , अखंडता और अक्क्षुणता पर हमला करेगा या अपनी सामरिक शक्ति के बल पर उसके भू-भाग पर कब्जा करने का प्रयास करेगा तो इस कृत्य को अन्तराष्ट्रीय नियमों और अंतर्राष्ट्रीय नैतिकता का उल्लंघन माना जाएगा। अंतरराष्ट्रीय बिरादरी उसे हमलावर मानते हुए आक्रमणकारी देश घोषित करेगी और संयुक्त रूप से यथोचित कार्यवाही करेगी।आज वैश्विक समाज सिकन्दर-युगीन दौर से काफी आगे निकल चुका हैं परन्तु सिकन्दर युगीन कबिलाई मानसिकता वाला मुहावरा आज भी हमारे सामाजिक और राजनीतिक जन-जीवन में गहरे रूप से समाया हुआ है। यदि इस मुहावरे का गौर से ,गहराई से और गम्भीरता से विश्लेषण किया जाय तो यह मुहावरा किसी भी क्षेत्र में विजय प्राप्त करने के लिए अनुचित,अनैतिक और अवैध साधनों के प्रयोग को न केवल मान्यता प्रदान करता है बल्कि इन साधनों के प्रयोग के लिए लोगों का मनोबल भी बढाता है। इस मुहावरे के व्यापक संदर्भ को देखा जाए तो इससे परिलक्षित होता है कि-साम, दाम, दण्ड और भेद की नीति का पालन करते हुए या छल कपट प्रपंच धूर्तता और धोखाधड़ी का प्रयोग करते हुए किसी भी क्षेत्र में अपनी जीत सुनिश्चित करनी चाहिए । येन केन प्रकारेण जीत हासिल करने वाले व्यक्ति ही जनमानस में महिमामंडित किए जाते हैं और इतिहास के पन्नों पर भी रेखांकित किए जाते हैं। इस मुहावरे का चीर-फाड करने पर पता चलता है कि-यह मुहावरा कबिलाई दौर के कबिलाई समाज की कबिलाई मानसिकता का परिचायक हैं। हिन्दी सहित समस्त भाषाओं के साहित्य और व्याकरण में मुहावरो के शाब्दिक नहीं अपितु लाक्षणिक अर्थ ग्रहण किए जाते हैं अगर इस मुहावरे के लाक्षणिक अर्थ और इसमें छिपे हुए निहितार्थ को गौर से देखा जाए तो उससे भी कबिलाई मानसिकता की झलक मिलती है। प्राचीन कबिलाई समाजों में स्पष्ट नियम और कानूनों का प्रायः अभाव पाया जाता था और प्रायः कबीले के सरदार का हुक्म ही नियम और कानून हुआ करते थे। कबिलाई समाज और राजतंत्रीय परम्पराओं में व्यक्ति विशेष का शासन प्रचलित रहता हैं जबकि- लोकतंत्र में “कानून का शासन ” चलता है।
जैसे-जैसे समाज सभ्यता की तरफ अग्रसर होने लगे वैसे-वैसे समाज को सुव्यवस्थित और सुचारु रूप से संचालित करने के लिए स्पष्ट रूप से नियम कानून भी बनाये जाने लगे। कबिलाई दौर में सिंहासन या सत्ता की हकदारी तलवारें तय किया करती थी जबकि एक सभ्य लोकतांत्रिक समाज में लोगों की तर्जनी उंगलियों पर लगे नीले निशानों की संख्या से सिंहासन और सत्ता की हकदारी सुनिश्चित होती हैं। आज खेल के मैदान से लेकर हर तरह की प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्धा के लिए नियम कानून बनाये जा चुके हैं।
इसी तरह चयनित और निर्वाचित होने के लिए भी स्पष्ट रूप से कानून बनाये जा चुके हैं और एक सुनिश्चित प्रक्रिया का पालन किया जाता है। निर्वाचित प्रतिनिधियों से आम जनमानस में न्यूनतम नैतिक चरित्र की दरकार रहती हैं और प्रतिनिधियों से सम्पूर्ण निर्वाचन प्रक्रिया के दौरान नैतिक मूल्यों का पालन किये जाने की उम्मीद की जाती हैं। एक सभ्य लोकतांत्रिक और नैतिक मूल्यों से परिपूर्ण समाज में चुनाव जनसेवा के क्षेत्र में स्वस्थ्य प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्धा होती हैं। जिसमें चुनाव लड रहे प्रतिस्पर्धी से मर्यादित आचरण और व्यवहार की उम्मीद की जाती हैं। सत्ता प्राप्त करने के नैतिक और मर्यादित तौर-तरीकों पर मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने कहा था कि-जो सिंहासन छल कपट प्रपंच और धूर्तता से मिले उसे अपने पैरों से भी नहीं छूना चाहिए। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी कहा था कि- मनुष्य को अपने जीवन में पवित्र और नैतिक लक्ष्यों और साध्यो की प्राप्ति के लिए प्रयास करना चाहिए परन्तु पवित्र और नैतिक लक्ष्यों और साध्यो की प्राप्ति के लिए साधन भी पवित्र होने चाहिए। पवित्र और नैतिक साधनों से प्राप्त साध्यों में स्थिरता , सर्वव्यापकता , सर्वस्वीकार्यता और दीर्घकालिकता होती हैं।
इसलिए एक सभ्य, नैतिक ,आधुनिक और विशुद्ध लोकतांत्रिक समाज में “जो जीता वही सिकंदर” जैसे मुहावरों को लोक जीवन के चलन कलन में पूरी तरह से अलोकतांत्रिक, अनैतिक अनुचित और आमर्यदीत माना जाता है। इसलिए आम जनमानस के मन मस्तिष्क और हृदय में समाहित धारणा को पूरी तरह से मिटाकर ही हम सभ्य लोकतांत्रिक समाज बना सकते । जो जीता वही सिकंदर की धारणा से मिलती-जुलती एक अन्य धारणा आम जनमानस में तेजी से प्रचलित हो चली है।वह धारणा है लोकतंत्र के अनिवार्य उत्सव चुनाव को सिर्फ जीत-हार के तराजू पर तौलना। जबकि-एक सजग सचेत और जागरूक में चुनाव के व्यापक पहलुओं पर गहनता से विचार विमर्श होता है महज जीत-हार की सीमाओं तक बहस सीमित नहीं रहती हैं।
लोकतंत्र में एक निश्चित अवधि में शासन व्यवस्था बदलने की प्रक्रिया चुनाव मे जीत-हार का निश्चित रूप से महत्व होता हैं। परन्तु एक वास्तविक गतिशील और सजीव लोकतंत्र में चुनाव को महज जीत-हार के तराजू पर नहीं तौला जाता हैं। जीत-हार के तराजू पर तौलने मापने और नापने की परम्परा वस्तुतः लोकतंत्र और आम जनमानस के बुनियादी मुद्दों के साथ विश्लेषणात्मक और विमर्शात्मक विश्वासघात हैं।जिस समाज में चरित्र से ज्यादा चेहरे पर वोट देने की परम्परा हो उसे सजीव और सच्चा लोकतंत्र नहीँ कहा जा सकता है । इसका निहितार्थ यह भी है कि-आम जनता के राजनीतिक शिक्षण-प्रशिक्षण में राजनीतिक सूरमाओं ने किसी तरह का कोई प्रयास नहीं किया है।
भारत सहित तिसरी दुनिया के देशों में चुनाव का आकलन और विश्लेषण सिर्फ जीत-हार की प्रचलित परम्पराओं परिपाटियों मान्यताओं और धारणाओं की दृष्टि से किया जाता है। परन्तु एक सजीव लोकतंत्र में अनिवार्य रूप से चुनावी मौसम में यह भी ध्यान रखा जाता है कि-इस चुनाव में चुनाव लडने वाले अभ्यर्थियों ने वर्तमान दौर के हिसाब से जनता के किन-किन बुनियादी समस्याओं और मुद्दों को उठाने का प्रयास किया या कितनी मात्रा तक राजनेताओं ने आम जनमानस को उनके नागरिक अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति सच्चे मन से सजग सचेत और जागरूक किया। शिक्षा चिकित्सा सडक सुरक्षा सहित आम जनमानस की मूलभूत आवश्यकताओं पर बहस मुहासिबा का उपयुक्त अवसर चुनावी मौसम ही होता हैं।
चुनाव जनमानस को आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक रूप से शिक्षित-प्रशिक्षित और जागरूक करने अवसर होता हैं। चुनावी मौसम में सुयोग्य ईमानदार सचरित्र नेताओं द्वारा आम जनमानस को विविध बुनियादी समस्याओं और मुद्दों पर जानकारी उपलब्ध कराई जाती है जिससे आम जनमानस की बुनियादी समस्याओं और मुद्दों पर जानकारी और समझदारी बढती है। इसलिए दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में लोकतंत्र के पवित्र पर्व चुनाव पर जीत-हार की सरहदो से बाहर निकल आम जनमानस के मतदान आचरण और व्यहार के साथ ही साथ चुनाव में दौरान उठने वाले आम जनमानस के बुनियादी मुद्दों और उनकी समस्याओं पर जमकर बहस करने का प्रयास करें। चूँकि लोकतंत्र एक गतिशील अवधारणा हैं इसलिए चुनावों पर व्यापक दृष्टिकोण से बहस मुहासिबा चिंतन मनन करते हुए इसके लिए सुधारात्मक प्रयास कर सकते हैं। इसके साथ ही साथ व्यापक विचार विमर्श द्वारा ही हम निर्वाचित प्रतिनिधियों को जनता के प्रति जवाबदेह बना सकते है