फतेहपुर/बिन्दकी : उर्दू चांद की तारीख के मुताबिक सातवीं मोहर्रम पर मोहल्ला मुगलाही से निकाला गया पलंग जुलूस जो की उर्दू कैलेण्डर के मुताबिक मनाया जाता है मोहर्रम पलंग जुलूस मुगलाही स्थित शाह मीरक शाह बाबा बड़ा इमामबाड़ा से निकलकर फाटक बाजार,मेन बाजार, खजुहा चौराहा,बड़ा कुंआ,बजरिया,होते हुए गलियों के रास्ते घूमते हुए दूसरे दिन उर्दू तारीख के मुताबिक 08 मोहर्रम को अपने गंतव्य स्थान पर पहुंचता है।

आखिर मुस्लिमों के लिए क्यों खास है मोहर्रम की सात तारीख।

सातवीं मुहर्रम:आज ही के दिन पानी रोका गया था इमाम हुसैन के कुनबे का।

चौदह सौ अड़तीस वर्ष पूर्व मुहर्रम की सात तारीख को कर्बला के मैदान में इमाम-ए-हुसैन व उनके कुनबे के लोगों का जालिमों ने पानी रोक दिया था। उनकी शहादत आज पूरी दुनिया में मनायी जाती है। कर्बला में हुई इस हक और बातिल की जंग में इमाम के कुनबे के बहत्तर लोग शहीद हुए थे। इमाम-ए-हुसैन नबी-ए-करीम के नवासे थे। इनका जन्म 8 जनवरी 626 ई० को मक्का के पवित्र स्थान ‘काबा शरीफ’ में हुआ था।

इमाम-ए-हुसैन किसी एक मजहब व सम्प्रदाय के नहीं थे। बल्कि वे संपूर्ण मानव जाति के थे। जुल्म ओ नाइंसाफी एवं असत्य के आगे सर न झुकाने वाले इमाम-ए-हुसैन 61 हिजरी 680 ई० ईराक स्थित कर्बला के मैदान में लड़ते हुए शहीद हुए थे। इमाम के उन मासूमों की याद में सात मुहर्रम को मेंहदी (ताजिया) रखी जाती है। कर्बला के मैदान में हुए दिल दहलाने वाले इस युद्ध में इमाम-ए-हुसैन ने अपने बहत्तर साथियों के साथ भूखे-प्यासे रहकर जंग की दसवीं मुहर्रम को यजीदियों ने शहीद कर दिया था। इमाम अपने छोटे लश्कर के बल पर सबसे शक्तिशाली क्रूर शासक यजीद व उसकी एक लाख फौज के छक्के छुड़ा दिया था। यजीद चाहता था कि कि इमाम उसे इस्लाम का खलीफा मान लें और उसके हाथ पर बैअ्त यानि (संधि) कर लें। लेकिन इमाम ने ऐसा न करने का प्रण कर लिया। 28 रज्जब सन् 61 हिजरी को इमाम अपने परिवार के साथ मदीने से चले, 05 माह तक सफर करने के बाद दो को कर्बला के मैदान में पहुंच शिविर लगाया। इसकी सूचना यजीद को हुई। उसने पहले बैअ्त का प्रस्ताव भेजा। जिसको अस्वीकार करने पर सात मुहर्रम से ही उन पर व उनके कुनबे पर पानी बंद कर दिया गया और नौ मुहर्रम की रात्रि में ही फौजों के साथ इमाम के काफिले पर हमला कर दिया गया। इस हमले का मोर्चा हजरत अब्बास ने रोका।

इमाम ने जालिमों से इबादत के लिए एक रात्रि का समय मांगा। दस मुहर्रम की सुबह यजीद के फौज की कहर से इमाम के एक-एक करके साथी शहीद हो रहे थे। 06 माह का मासूम अली असगर को हुरमला ने तीन फाल का तीर मारकर शहीद कर दिया, अली अकबर बेटे व भतीजा कासिम भाई हजरत अब्बास को नदी के किनारे काटकर शहीद कर दिया गया। आखिर में दोस्त मुस्लिम के शहादत के बाद शिविर में गये इमाम से महिलाओं ने अन्य लोगों के बारे में पूछा तो दु:खी होकर उनके शहादत की बात बताई। उसके बाद इमाम घोड़े पर सवार होकर जंग-ए-मैदान की ओर चले तो इमाम की चार वर्षीय पोती सकीना उनसे लिपट गई। जिसको समझाकर बहन जैनब के हवाले कर आगे बढ़े। कर्बला के मैदान में इमाम की वीरता देख यजीद की फौज पीछे भागने लगी।

इमाम के वफादार घोड़े ने कइयों को अपनी टापों से रौंद डाला। यजीदी फौजों ने इमाम को लहुलुहान कर दिया। इमाम जब नमाज के लिए सर को सजदे में रखा ही था कि जालिम पिसर नामक यजीदी ने गर्दन पे तलवार मारी जिससे सर धड़ से अलग हो गया। इंसानियत तार-तार होने से मानवता रो पड़ी, यजीद की फौज ने इमाम के शिविर में आग लगा दी। मौजूद औरतों व बच्चों को कैद कर लिया गया। कर्बला के तपते रेगिस्तान में शहीद हुए बहत्तर लोगों की लाशों को कई दिनों बाद दफनाया गया। इस तरह इमाम ने इंसानियत को बचाने के लिए सभी को कर्बला में कुर्बान कर दिया। परन्तु अत्याचार,असत्य के आगे कभी भी झुके नहीं। उनकी यादगार में ताजिया रखने के लिए सात मुहर्रम को छोटी व नौंवी की रात में बड़ी ताजिया रखकर मनाया जाता है। इस मौके पर अतहर खान,शान खान,सुल्तान खान,अमजद खान,फैज़ान,अयान खान,साहिल खान हारून अली,आफताब अली,इमरान खान,सुहैल खान,मुजीब,चाँदबाबू जफर अली आदि सहित सैकड़ों की तादाद में भीड़ रही।

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