निर्वाचन आयोग द्वारा (कल, शुक्रवार, 17 फरवरी 2022) दिये गए निर्णय कि असली शिवसेना एकनाथ शंभाजी शिंदे वाली है, न कि उद्धव बाल ठाकरे की, से सोनिया-कांग्रेस भी असहज और डोलायमान हो गई होंगी। केवल इसलिए नहीं कि यह घोर हिंदूवादी शिवसेना और मुस्लिम-परस्त सोनिया-कांग्रेस पर सीधा हमला है। बल्कि इसीलिए कि पार्टी के संगठनात्मक मतदान के बुनियादी सिद्धांत पुनः स्थापित कर दिए गए हैं। अशोक मार्ग पर स्थित निर्वाचन सदन से ढाई किलोमीटर दूर सोनिया आवास (10 जनपथ) तथा कांग्रेस पार्टी कार्यालय (24 अकबर रोड) में सिहरन तथा हड़कंप निश्चित मची होगी। तीन-सदस्यीय निर्वाचन आयोग के सदस्य श्री राजीव कुमार, श्री अनूप चंद्र पांडे तथा श्री अरुण गोयल ने शिवसेना गुटों पर दिए गए निर्णय में स्पष्ट निर्दिष्ट किया है कि शिवसेना के संविधान का वह प्रावधान अवैध है जिसमें निर्धारित है कि : “पार्टी अध्यक्ष ही चुनाव समिति को नामित करेंगे। फिर चुनाव समिति सदस्य ही अध्यक्ष चुनेंगे।” इससे पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र की हत्या होती है। सोनिया कांग्रेस गुजराती कहावत को सार्थक बनाती हैं : “आओ भाई हरखा, आपण बन्ने सरखा।” अर्थात शिवसेना की भांति ही कांग्रेस भी है। वह अध्यक्ष नामित करती रही फिर वही अध्यक्ष शेष पार्टी कार्यकारिणी को नामित किया करते हैं। इसीलिए माताश्री, फिर पुत्रश्री और फिर माताश्री ही अध्यक्ष बनते आए हैं। मलिकार्जुन खरगे का  अध्यक्ष चुना जाना एक अचंभा करने वाला इत्तेफाक है। विगत चार दशकों से आम कांग्रेसीजन ने मतपत्र देखा ही नहीं। सबका परंपरागत रीति से नामांकन ही होता आया है।

 ठाकरे की शिवसेना में भी मतदान की प्रणाली थी ही नहीं। बात ढाई दशक पुरानी है। शिवसेना प्रमुख बाल प्रबोंधकर ठाकरे से निर्वाचन आयुक्त डॉ पीवीजी कृष्णमूर्ति ने पार्टी से निर्वाचित पदाधिकारियों की सूची मांगी। बाल ठाकरे बोले कि “शिवसेना में चयन होता है, निर्वाचन नहीं।” इस पर डॉ कृष्णमूर्ति ने नोटिस द्वारा चेतावनी दी कि शिवसेना की मान्यता निरस्त हो जाएगी यदि अध्यक्ष निर्वाचित नहीं हुआ तो। यह किस्सा स्व. डॉ कृष्णमूर्ति जी, जो मेरे ममेरे अग्रज थे, ने मुझे खुद बताई थी। भयभीत शिवसेना के शेर बाल ठाकरे ने मिमिया कर येन केन प्रकरण कागजी कार्यवाही द्वारा निर्वाचन दिखाकर खुद को फिर एक बार अध्यक्ष (सर्वसम्मति) दर्शाया था।

 सोनिया गांधी का प्रकरण भी मिलता-जुलता ही है। वे कांग्रेस अध्यक्ष एक रक्तहीन क्रांति द्वारा बनी थीं। घटना 14 मार्च 1998 की है। सोनिया गांधी अपने दलबल सहित पार्टी कार्यालय में घुसीं। वहां धोती कुर्ता टोपी धारण किया सीताराम केसरी, बक्सरवाले पंसारी, को उठाकर बेदखल कर दिया। खुद को कांग्रेस अध्यक्ष घोषित कर डाला, न नामांकन न मतदान। प्रधानमंत्री पद हेतु दावा भी ठोक दिया। दलित राष्ट्रपति केआर नारायण ने शपथ ग्रहण की तैयारी का आदेश भी दे दिया था। सोनिया गांधी की मां श्रीमती पाउलो मायनो इटली से नई दिल्ली आ भी गई थी ताकि राष्ट्रपति द्वारा बेटी के प्रधानमंत्री पद और गोपनीयता की शपथ दिलाना देख सकें। पर तभी समाजवादी लोहियावादी नेता मुलायम सिंह यादव ने राष्ट्रपति को बता दिया कि सोनिया गांधी को उनके सांसद समर्थन नहीं दे रहे हैं। सोनिया द्वारा प्रेषित सांसदों की सूची से समाजवादी सदस्यों का नाम काट दें। तब बहुमत का सोनिया वाला दावा झूठा साबित हो गया। प्रधानमंत्री बनने की उनकी हसरत अधूरी रह गई। तब तक अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार गिर गई थी और लोकसभा भंग हो गई। आम चुनाव हो गये। 

 लौटे उद्धव ठाकरे के प्रकरण पर। निर्वाचन आयोग के पार्टी संविधान द्वारा मतदान की प्रक्रिया की अनिवार्यता पर बल देने के नतीजे से ही ठाकरेपुत्र शिवसेना का नाम और निशान छिन गया। एकनाथ शिंदे से वे हार गए। निर्वाचन आयोग द्वारा दिया गया यह दूरगामी निर्णय उन सभी राजनीतिक दलों पर पड़ेगा जो कागजी हैं, चुनाव बोगस तरीके से कराते हैं। अब मांग उठ रही है कि, पार्टियों के संविधान के उद्देश्य, कार्यक्रम आदि की भी निर्वाचन आयोग नियमानुसार समीक्षा करें। 

 एकदा शिवसेना के नेता और उसकी पत्रिका “सामना” के संपादक सांसद संजय राउत ने लिखा था कि भारत के मुसलमानों को मताधिकार से वंचित कर दिया जाए। (13 अप्रैल 2015 : मराठी दैनिक सामना)। इस आधार पर ही शिवसेना की मान्यता निरस्त की जा सकती है। हालांकि उद्धव ठाकरे के मंत्रिमंडल में शरद पवार की पार्टी के नवाब मलिक और हसन मुशर्रफ और सोनिया कांग्रेस के असलम शेख रहे थे।

 पर्यवेक्षकों का मानना है कि निर्वाचन आयोग के कल के निर्णय से सोनिया-कांग्रेस को अपार क्षति पहुंची है। धनी राज्य महाराष्ट्र से अपार आर्थिक योगदान उन्हें मिलता रहा। वह बंद हो गया। कमलनाथ के अपदस्थ होने से मध्य प्रदेश वाला स्त्रोत भी सूख गया। हिमाचल प्रदेश यूं भी पिछड़ा तथा विपन्न राज्य है। तो अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव में धनाभाव के कारण वे कितने कारगर तरीके और मजबूती से लड़ पाएंगी ? इसी परिवेश में निर्वाचन आयोग के निर्णय का दूर तलक असर पड़ेगा। दस जनपथ पर खासकर।

 इस राजमद में चूर उद्धव बाल ठाकरे के मानभंग से एक शुभकार्य तो हो ही गया। निर्वाचन आयोग का यह सुविचारित फैसला भारतीय राजनीति में सदैव यादगार रहेगा। साधु प्रवत्तिवाले, अंग्रेजी साप्ताहिक तथा हिंदी पत्रिका “पर्वत पीयूष” के मूर्धन्य संपादक भगत दाजू को नैसर्गिक न्याय मिल गया वे हमारे IFWJ की उत्तराखंड इकाई के वरिष्ठ सदस्य भी थे। इस पूर्व राज्यपाल को अहंकारी उद्धव ठाकरे ने एक बार मुंबई में राजकीय वायुयान से उतरवा दिया था। आज ठाकरे को उचित दण्ड मिल गया।

K. Vikram Rao
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